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सेवानिष्ट साधक अपने आपको उन सभी वृत्तियों से अलग रखता है -जिनेन्द्रमुनि मसा

गोगुन्दा 23 अप्रैल 2025 , कांतिलाल  मांडोत ! श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ तरपाल स्थानक भवन में अक्षय तृतीया के पारणा महोत्सव में पधारे महाश्रमण ने तरपाल भवन में कहा कि
मानव धन्य हैं, जो अपने जीवन में सेवाधर्म का परिपालन करते हैं। इस बात को हम यूँ भी कह सकते हैं कि दरअसल वही मनुष्य है. जो अपने जीवन में सेवाधर्म को स्थान देता है। अपना पेट तो पशु भी भर लेता है। पर मनुष्य वही है, जो दूसरों की पीडा को अपनी पीडा समझकर उसे दूर करने का हर संभव प्रयास करता है। किसी ने कहा भी है-अपने लिए जिये तो क्या जिये। ऐ दिल ! तूं जी जमाने के लिए।मुनि ने कहा सेवा न केवल मानव-जगत् के लिए, अपितु प्राणिमात्र के प्रति निःस्वार्थ समपर्णभाव है। प्रत्येक जीव को अपनी आत्मा के समान समझना, अनुभव करना सेवा और मनुष्यता का बीज मंत्र है। सेवानिष्ठ साधक अपने आपको उन सभी वृत्तियों से अलग रखता है, जो वृत्तियाँ ईर्ष्या, घृणा, हिंसा, स्वार्थपरता आदि को जगाती हैं।
साध्वी  ड्रॉ संयमलताजी मसा ने सेवाभाव पर प्रवचनमाला मे कहा किसेवाभाव में एक निष्पाप एवं विशुद्ध भावना उभरती है। जो सेवा से जुड़ा है, वह निश्चय ही संवेदनशील होता है। वह स्वार्थी नहीं, अपितु परमार्थी होता है। वह क्रोध को नहीं, क्षमा को अपनाता है। उसमें अभिमान नहीं, अपितु विनय होता है। वह सतत माया और मोह के आग्रहों से अपने आपको परे रखकर चलता है।
साध्वी ने कहा सेवा से जुड़ने का अर्थ अपनी आत्मा से जुड़ना है। प्रत्येक जीव की जो अंतर भावना है, उससे संलग्न हो जाना है। इस संलग्नता से व्यक्ति होकर भी नहीं होता है, व्यक्ति का अहंभाव खत्म हो जाता है।

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