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पारिवारिक क्षेत्र में मन की रसधारा ही काम आती हैं-जिनेन्द्रमुनि मसा

गोगुन्दा 22 अप्रैल,कांतिलाल मांडोत !सुख और दुःख दोनों को मन की खेती कहा गया है। अगर हमारे नम पदार्थों को देखकर सुखानुभूति हो रही है तो वही आनन्द हम अपने विचारों अपनी भावनाओं में अवश्य प्रकट करेंगे। अन्दर या भीतर का आनन्द ही क आनन्द है। मन में यदि आनन्द की रसधारा प्रवाहित हो रही है तो हम बाहर भी रसधारा को प्रवाहित करेंगे। प्रत्येक व्यक्ति को अपने आनन्द का साथी बनाने प्रयास करेंगे कि वह भी हमारे साथ आनन्द का सहभागी बने। पति-पत्नी के मन जो आनन्द है. वही उन्हें एक सूत्र में बाँधे रखता है। यदि दोनों के मन में स्नेह है। प्रेम की रसधारा सूख जाती है तो एक छत के नीचे रहते हुए भी उनमें दूरिया हो जाती हैं। पारिवारिक क्षेत्र में मन की रसधारा ही कार्य करती है। परिवार का प्रत्येक सदस्य एक-दूसरे के लिए सहर्ष त्याग करने को तत्पर रहता है। यदि उनमें तनिक भी मनमुटव हो जाये तो नफरत की दीवार खिंच जाती है। तनिक त्याग भी सदस्यों के लिए भारस्वरूप बन जाता है। जीवन में मधुरता समाप्त हो गई तो समझो जीवन का ही एक तरह से अन्त हो गया।मन में आनन्द किस क्षण पैदा हो जाये, यह सब मन पर ही निर्भर है।
मुनि ने कहा मनुष्य सृष्टि का सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। युष्टि की सीमा मृत्युलोक तक ही नरक भी जीवों की पुष्टि है। मनुष्य धरती के पशु-पक्षी अर्थात सर्वच जी श्रेष्ठ है ही। उसका जीवन स्वर्ग के देवों से भी श्रेष्ठ है। ये सब बातें आप सुनते आ रहे हैं। मनुष्य की श्रेष्ठता धर्म को अपनाकर जीवन को सफल बनाने में बिना बादल, दृष्टि के बिना नेत्र, मिठास के बिना मिठाई और प्रकाश के बिना जैसे व्यर्थ है, निरर्थक है, वैसे ही धर्म के बिना मनुष्य भी व्यर्थ है। धर्महत और पशु में कोई अन्तर नहीं।
पशु-पक्षी, यहाँ तक कि कीट-पतंगों में भी इतनी बुद्धि होती है कि अपने शत्रुओं को पहचानते हैं। उनसे बचते भी हैं। सर्प मोर को देखते ही दिल में जाता है। सभी जीव अपने शत्रुओं से बचते हैं। पर मनुष्य को देखिए यह शत्रु को अपने भीतर बसाकर अपना सर्वनाश करके प्रसन्न होता है। आप किसी के घर में कूड़ा डाल दें और जिसके घर में कूड़ा पड़ा, वह आपसे झगड़ा करे तो यह न्यायसंगत है। इसका औचित्य समझ में आता है। लेकिन जब कोई आपके घर में. यानी आपके अन्तःकरण में बुरे विचारों का कूड़ा डालता है तो उल्टे आप खुश होते है। क्या यही है, मनुष्य-जीवन की श्रेष्ठता ? क्रोध, लोभ आदि क्या आपके शत्रु नहीं हैं? क्या आप इनके बहकावे में नहीं आते? आप अपने शत्रुओं को पहचानी। इनी शत्रुओं में से आपका एक शत्रु है, प्रमाद।

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