




आज व्यक्ति भौतिक के पीछे भाग रहा है और सुख आत्म-शांति से दूर होता जा रहा है। भौतिक सुखों, इन्द्रियजन्य सुचों की भूख कभी न मिटने बाली मूख है। आत्म-शान्ति का क्षण ही की तृषा को शान्त कर सकता है। जो व्यक्ति अध्यात्म से जुड़ा होता है वह कषायों व तनावों से मुक्त होता है। कषाय और तनाव एक दूसरे को उत्तेजित किये रहते हैं और इनके बीच में पिसता है व्यक्ति। व्यक्ति इनको झेलता
है और अशान्ति का अनुनय करता है। मोतिक जगत पदार्थों को महरप देता है और अध्यात्म जगत आत्मा को महत्व देता है। भौतिकवादी पदार्थों के विकास में लीन रहता है। जो आत्मा की खोज में रहेगा, यह शाश्वत शान्ति का बरण करेगा। आत्मा की खोज के लिए व्यक्ति को कहीं बाहर नहीं भटकना पठत्ता। उसे अन्तरंग में प्रविष्ट होकर खोजना होता है।
बाहर रहकर जो खोज की जाती है उत्तरी आवश्यकता की पूर्ति तो हो सकती है. किन्तु सुख-शान्ति की प्राप्ति कदापि नहीं। लेकिन विडम्बना यह है कि आवश्यकता की पूर्ति को ही मनुष्य ने सुख मान लिया है। मभार्थतः सुख का क्षेत्र अध्यात्म का क्षेत्र है, अन्तरंग का क्षेत्र है। है। सुख और शान्ति मनुष्य के अन्दर ही है, पर वह वहीं कहीं गुम हो चुकी है, उसे बदि बाहर की ओर खोजेंगे तो क्या यह मिल जायेगी ? दर्द कहीं हो और दवा कहीं और लगाई जाए तो बया दर्द ठीक हो सकता है?
इस बात की की पुष्टि में मुझे मुल्ला नसीरुदीन के जीवन का एक रोबक प्रसंग याद आ रहा है। मुल्ला नसीरुद्दीन के लड़के के पैर में चोट आ गई। मुल्ला ने पुलटित चढ़ाई पहले लड़के की गाँ ने कोशिश की । मगर लड़का जरा बिगडेल था। गरम गरम लगाने भी देता था. तब मुल्ला आया । उसने लड़के को शिड़की दी कि पूरी तरह सिकाई हो जाने से पहले बोला तो मार पड़ेगी। फिर मुल्ला ने पुलतिस स्वाना शुरू कर दिया सिकाई
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के दौरान लड़के ने कई बार बोलने की कोशिश की, मगर नसरूदीन ने उसे डांटकर खामोश कर दिया । जब भरपूर सिकाई हो चुकी तब उसे बोलने की इजाजत मिली। लड़का बोला लेकिन पिताजी आपने तो दूसरे पर पुलटिस लगाई है। यह सुनकर मुल्ला हैरान हो गया। हमारे जीवन में ऐसा ही कुछ विरोधाभास चल रहा है।
शान्तपूर्ण जीवन के लिए सहिष्भुता और उदारता कर होना परमावश्यक है। जाज मनुष्य बात-बात पर एकदम उत्तेजित ही जाता है। मरने-मारने पर उतारू हो जाता है। आवेश इतना बढ़ जाता है कि उसमें विवेक ही नहीं रहता है कि क्या सद है और क्या असद? समत्य का उसमे अभाव रहता है। यदि मनुष्य को अपना जीवन फूलों की तरह सजाना है तो उसे अपनी जीवनचर्या में रामत्ता का सहारा लेना होगा। जो समतामान होता है यह सदा सहिष्णू च शान्त बना रहता है। प्रत्येक परिस्थिति में, उसके व्यवहार में, वाणी में दृष्टि में, चिन्तन में मैत्री भावना समाधी रहती है। आज घर-घर में सास-बहू, ननद-भाभी, देवरानी-जेठानी आदि के जो झगडे, कलह, अन्तर्दवन्द्र दिखाई दे रहे है उनके मूल में समाता का अभाव ही है।
जीवन में समन्वय समता के संस्कार लुप्त हो गये हैं। सहिष्णुता व सौहार्द के बीज सूख चुके हैं। मान अपमान के प्रसंग अत्यधिक संगृहीत है। स्वयं की भूलों को स्वीकार करने की प्रवृत्ति समाप्त हो गयी है। दूसरों को गिराकर स्वयं को स्थापित करने की भावनायें प्रबल हो गयी हैं।
महात्मा गाँधी से एक बार सर एंड्रज ने पूछा साप हिन्दुस्तान की किस बात से चिन्तित हैं गाँधी जी ने उत्तर में कहा- पहिन्दुस्तान को लोगों में करुणा का स्रोत सूखता जा रहा है। मैं इस बात से बेहद विन्तित हूँ। इस स्रोत के सूहाने से मानवीय
सवृतियों का विकास रुक जाएगा। मानसिक शान्ति के लिए योगासन सर्वोतम उपाय है। इससे बित्त में जो रुग्णता है, क्रोध, अहं, ईर्षया, द्वेष व दुर्भाव आदि आयेग हैं, जो तनाव पैदा करते हैं, वे समस्त विकार योगासन द्वारा नष्ट किए जा सकते हैं। वास्तव में योग साधना जीवन को शामा ग प्रसन्न रखने की साधना है। इससे गन सन्तुलित व पवित्र रहता है। बुरी आदतें छूटती है और स्वास्थ्य दीर्घजीवी रहता है। जागतिक लिभाओं वासनाओं और प्रतिस्पर्धाओं से व्यक्ति बहुत दूर निकल जाता है। इस प्रकार यह योग साधना मन को सन्तुलित सन्तुलित बनाती है और जीवनचर्या को पवित्र स्थाती है। इन दोनों के अभाव में शान्ति असम्भव है।
आज का युग वैज्ञानिक युग है। वैज्ञानिक साधनों के विकास ने मानव को श्रमशील बनाने की बजाय पराधीन और आलसी बना दिया है। कल-कारखानों में मशीनों का भयंकर शोर है। शक्षकों पर कर्णनेडी व्मनियों है आकाश में उड़ते हुए हवाई जहाजों की आवाजें हैं। इन वैज्ञानिक आविष्कारी ने तो शान्ति का अन्त कर दिया है।
जब आपको यह अहसास हो जाता है कि आत्मा के भीत्तर शान्ति और सुख की अजस धारा बन रही है तो इसके लिए किसी को प्रमाण की या सौगन्ध खाने की जरूरत नहीं है, अपने अनारंग में उतरने की जरूरत है। अपने अन्तरंग में उतरने के लिए मनुष्य को राग-द्वेषों कषायों को घिसना होता है. जलाना होता है। अन्तरंग जब कषायों से रिक्त हो जाता है, तब शान्ति और सुख की धारा प्रवाहित होने लगती है. ऐसा जीवन तनावमुक्त रहता है, गरान्त यहाँ खिला रहता है। तब यह यूक्ति चरितार्थ होती मिलती है-तनाथी का अन्त. जीवन का वराना अर्थात् जीवन का वसन्त तभी खिल सकेगा जब हम तनाव और उनके समस्त कारणों से विमुक्त बनेंगे !