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होली विशेष – उदयपुर जिले के ग्राम पंचायत बलीचा की होली

होली पर मेवाड़ की परम्पराओं में झलकता है शौर्य और स्वाभिमान
दहकते कंडों पर दौड़ जाते हैं वनवासी युवा
जंगल का हितैषी आदिवासी समाज

धरणेन्द्र जैन, खैरवाड़ा
खैरवाड़ा(उदयपुर)। हमारा देश विभिन्न परम्पराओं का धनी है। शौर्य और स्वाभिमान देश के कण-कण में समाया हुआ है। जो यहां की विविध परम्पराओं में भी परिलक्षित होता है। ऐसी ही कुछ परम्पराएं खैरवाड़ा क्षेत्र में होली पर दिखाई देती हैं जो यह अहसास दिलाती हैं कि मेवाड़ का इतिहास वीरता से परिपूर्ण है। वैसे भी मेवाड़-वागड़ ऐतिहासिक दृष्टि से पूरे विश्व में अलग स्थान रखता है। यहां के हर वर्ग में शौर्य कूट-कूट कर भरा है, चाहे वह वनवासी अंचल में रहने वाला समाज हो, परम्परागत रूप से समाज रक्षक माना जाने वाला क्षत्रिय समाज हो या समाज को दिशा देने वाला ब्राह्मण समाज मेवाड़ के हर समाज में ऐसी परम्पराएं हैं जो यह स्थापित करती है कि मातृभूमि की रक्षा के लिए हर समाज समर्पण को तैयार रहता है।

दहकते कंडों पर दौड़ जाते हैं वनवासी युवा
उदयपुर जिले के खेरवाड़ा उपखण्ड का गांव है बलीचा। यहां होलिका दहन पूर्णिमा के अगले दिन यानी धुलण्डी पर होता है। सुबह से ही इस दहन के लिए आसपास ही नहीं, सीमावर्ती गुजरात के गांवों से भी आदिवासी समाज के लोग एकत्र होना शुरु हो जाते हैं। जब युवाओं की टोली तलवारों और बंदूकों को लेकर गांवों की गलियों से गुजरती है तो ऐसा लगता है कि कोई सेना की टुकड़ी दुश्मन से लोहा लेने जा रही हो। यहां होलिका दहन स्थानीय लोकदेवी के स्थानक के समीप होता है। टोलियां फाल्गुन के गीत गाते हुए पहाडियों से उतरकर स्थानक पहुंचती हैं। समाज के मुखिया, आसपास के मोतबीर, महिलाएं-पुरुष, बच्चे सभी एकत्र होते हैं। फिर शुरु होता है ढोल की थाप पर गैर नृत्य। गुजरात के गरबा नृत्य के समकक्ष लेकिन डांडियों के बजाय तलवारों से किया जाने वाला नृत्य होता है गैर नृत्य। कोई-कोई युवा दोनों हाथ में तलवार लिए होते हैं तो कोई एक हाथ में तलवार और एक में बंदूक। मजाल है कि गोल घेरा बनाकर नाचते समय किसी को चोट भी लग जाए। हां, जो चूका, उसे चोट लग सकती है।

दोपहर दो बजे करीब शुरू होता है शौर्य का खेल।
यह एक तरह की प्रतियोगिता है। दहकती होली के बीच खड़े डांडे को तलवार से काटना यहां की परम्परा है। इसके लिए युवा प्रयास करना शुरु कर देते हैं। ऐसा नहीं है कि हर कोई यह प्रयास कर ले, क्योंकि यहां श्माइनस मार्किंग्य भी है। यदि जीते तो पुरस्कार मिलता है और गलती की तो मंदिर में सलाखों के पीछे बंद कर दिया जाता है। हालांकि, सजा लम्बी नहीं होती, लेकिन समाज के मुखियाओं द्वारा तय जुर्माना और भविष्य में गलती नहीं करने की जमानत पर उन्हें रिहाई मिलती है। जाहिर है इस कठोर परम्परा के निर्वहन में कभी कोई अप्रिय वाकिया न हो जाए, इसलिए पुलिस का बंदोबस्त भी रहता है।इसी के समानांतर कुछ आदिवासी क्षेत्रों में श्नेजा उतारने्य की परम्परा है। होली पर कांटेदार सेमल के डांडे के ऊपर पोटली बांधी जाती है, उसमें भाले का फल रखते हैं। गैर नृत्य के दौरान आदिवासी युवा लपक कर डांडे पर चढ़ते हैं और उस पोटली को उतार लाते हैं। पोटली में रखे भाले के फ ल को श्नेजा्य कहा जाता है। इसके बाद होली का मंगल किया जाता है।-जंगल का हितैषी है आदिवासी समाज-शहरों में सेमल के वृक्षों की बड़ी मांग के चलते सेमल नष्ट होने के कगार पर है, वहीं आदिवासी समाज होली में लकडियां कम और गोबर के छाणे ज्यादा काम में लेता है। इससे जंगल की लकड़ी बर्बाद नहीं होती। मेवाड़ में सेमल वृक्ष की उपलब्धता कम होने और उनका संतुलन बनाए रखने के लिए पिछले कुछ सालों से श्लोहे की होली्य काम में लेने की जागरूकता की जा रही है। इसमें वन विभाग भी सहयोग कर रहा है। होली के डांडे में सेमल के बजाय लोहे का ढांचा काम में लिया जाता है जिसका हर साल उपयोग किया जा सकता है। कुछ समाज-संस्थाओं ने इस परम्परा को अपनाया भी है।
होली के दहकते अंगारों के बीच होली के डांडे को तलवार से काटकर गिराने की परम्परा और सेमल के कांटेदार तने पर चढ़कर ऊपर लटकी पोटली को ले आने का खेल, ऐसी परम्पराओं को जो भी देखता है उसका रोम-रोम रोमांचित हो उठता है।

कहीं-कहीं नेजा का खेल
मेवाड़ के कुछ आदिवासी क्षेत्रों में नेजा उतारने की परम्परा है। होली पर कांटेदार सेमल के डांडे के ऊपर पोटली बांधी जाती है, उसमें भाले का फल रखा जाता है। गैर नृत्य के दौरान आदिवासी युवा लपक कर डांडे पर चढ़ते हैं और उस पोटली को उतार लाते हैं। पोटली में रखे भाले के फल को श्नेजा्य कहा जाता है। इसके बाद होली का मंगल (अग्नि संस्कार) किया जाता है।

जंगल का हितैषी आदिवासी समाज
शहरों में होली के लिए परम्परानुसार सेमल के वृक्ष की बड़ी मांग के चलते सेमल कम होता जा रहा है, जबकि आदिवासी समाज होली में लकड़ियां कम और गोबर के छाणे ज्यादा काम में लेता है। इससे यह भी कहा जा सकता है कि वनवासी समाज अपने आवास को जानबूझ कर कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाता।

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